दिव्य चिंतन
धर्मदंड और धर्मगुरु से संचालित हो राजनैतिक व्यवस्था
हरीश मिश्र
- प्राचीन भारत में राजनैतिक व्यवस्था धर्मदंड और धर्मगुरु के आदेश, दिशा-निर्देश पर केंद्रित हुआ करती थी । भारत की राजनैतिक व्यवस्था का मूल्यांकन करने पर पता चलता है कि प्राचीन काल से ही एक ऐसे प्रजातांत्रिक तंत्र को विकसित करने का प्रयास किया गया, जिससे राजनैतिक व्यवस्था सत्ता के सिंहासन पर बैठने मात्र का सहारा ना बन जाए । सत्ता, मात्र सुख अर्थात् भोग-विलास की वस्तु बन कर ही ना रह जाए । धर्मगुरुओं ने सत्ता पर बैठे राजाओं को आर्थिक, धार्मिक, प्रजातांत्रिक अधिकार तो दिए, लेकिन व्यवस्था राजा केंद्रित ना हो इसलिए धर्म के दंड को धर्म गुरु के आदेश के रुप में प्रमुख स्थान दिया गया।
देश में राजनैतिक सत्ता पर आसीन शासकों ने सत्ता के नशे में चूर होकर जब-जब अपनी मनमानी की है तब- तब यहां की लोकतांत्रिक भावना ने विद्रोह का बिगुल फूंका है। इसी कारण कभी परशुराम के फरसों ने सत्ता में मदांध शासकों के सिर काट डाले , तो कभी धृतराष्ट्र की सत्ता को श्री कृष्ण ने उखाड़ फेंका , कभी चाणक्य ने अत्याचारी नंद वंश के शासक घनानंद की सत्ता को हिला कर रख दिया और सत्ता की बागडोर सड़क से उठाकर चंद्रगुप्त मौर्य जैसे शासक के हाथों में सौंप दी ।इसी प्रकार प्राचीन भारतीय राजनैतिक व्यवस्था अपनी कई विशेषताओं के कारण सर्वश्रेष्ठ व सर्वोपरि रही।
राजनैतिक व्यवस्था का सर्वोच्च राजा होता था और वर्तमान में जनप्रतिनिधि । राजा धर्मदंड और धर्मगुरु की आज्ञा का पालन करता था । वर्तमान में प्रजा और संविधान सर्वोच्च है। जब से भारतीय राजनीति में धर्मगुरु का स्थान समाप्त हुआ है, प्रजा और संविधान व्यवस्था राजनेता के कदमों तले कुचली जाने लगी । राजा को धर्मगुरु से डर लगता था । किंतु जनप्रतिनिधियों को प्रजा और संविधान से डर नहीं लगता।
प्राचीन काल में सभा राष्ट्रीय संस्था थी । ऋग्वेद में 8 बार और अथर्ववेद में 17 बार सभा शब्द का उल्लेख हुआ है। उस समय सभा की सदस्यता प्राप्त करना कठिन होता था। सभासद के लिए योग्यता निर्धारित थी । वह व्यक्ति ही सभासद बन सकता था जो यज्ञ अर्थात लोकोपयोगी कार्य करता हो । विद्वान, धर्म पालक, मृदुभाषी तथा ज्ञानवान हो । सभा में विद्वान एवं चरित्रवान व्यक्ति ही सदस्य होते थे । जबकि वर्तमान व्यवस्था में कोई भी बाहुबली, भ्रष्टाचारी विधानसभा- लोकसभा का सदस्य बन सकता है।
भारत को पुनः अपनी धर्मदंड और धर्मगुरु वाली राजनैतिक व्यवस्था की ओर वापस जाना होगा। हमें अपनी राजनैतिक व्यवस्था को धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था से पुनः जोड़ना होगा। प्राचीन काल में भारत की सत्ता " सत्यम शिवम सुंदरम " की दिशा में अग्रसर होती थी। पर वर्तमान मे लोकसभा और विधानसभा में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को धर्मदंड और धर्मगुरु का भय नहीं है ।
प्राचीन काल में राज सिंहासन पर बैठे अयोध्या नरेश राजा दशरथ को वशिष्ठ जैसे धर्मगुरु एवं चंद्रगुप्त मौर्य को चाणक्य जैसे नीति पुरुष का मार्गदर्शन मिला। धर्मगुरु के कारण ही सत्तारूढ़ शासक, राजा को सदा प्रजाहित व राष्ट्रहित के कार्य करने की प्रेरणा मिलती थी ।
सत्ता से धर्मगुरु को प्रथक किया गया । इसीलिए वर्तमान राजनैतिक मूल्यों मैं गिरावट आई है। आज राजनेताओं से प्रजावत्सलता का भाव समाप्त हो गया है । राजनैतिक परिदृश्य सामाजिक समस्याओं, अपराधीकरण, भ्रष्टाचार आदि से गंभीर रूप से पीड़ित नजर आता है। लोकतंत्र के मंदिर में सार्थक संवाद के स्थान पर अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाता है । जिसे किसी भी स्थिति में गरिमा पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। हमें पुनः राजनैतिक शुचिता के लिए धर्मदंड और धर्मगुरु की शरण में जाना चाहिए। वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था धर्मदंड और धर्म गुरु से संचालित होना चाहिए । तो निश्चित रूप से भारत समृद्ध शाली होगा।